कल फलक पर था चाँद पूरा का पूरा,
और मै था जमीं पर कुछ अधुरा-अधुरा,
गुजार दी शब महकती चांदनी के साए में,
करता रहा इकट्ठा तारों को उसके इंतज़ार में,
ना हिज्र का मौसम था, ना वस्ल की ही बात थी,
ये तो बस आँखों ही आँखों में कटी फिर एक रात थी,
वो ना आये और ना ही हवाओं ने कोई खबर दी,
हमने भी एक और रात उनके नाम कर दी,
अब ये मसाफ़त हो कैसे तै, ऐ चाँद तू ही बता,
या तो दे-दे उनकी खबर नहीं तो दे-दे उन्हें मेरा पता |
© रविश 'रवि'
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