Wednesday 19 June 2013

बागवां....

वो ऊँगली...
जिसे थाम सीखा चलना मैंने,
वो हाथ....
जिसे थाम सीखा संभलना मैंने,
और
वो क़दमों के निशां...
जिन पे चल के जीना सीखा मैंने,

कांधे पे बैठा कर नुमाईश में घुमाना,
घोड़ा बन कर सारी दुनिया की सैर कराना,

मेरे एक रोने की आवाज़ पर,
सारे जहाँ की खुशियाँ क़दमों में डाल देना...
मेरी एक छोटी सी जिद के लिए,
अपनी बड़ी से बड़ी खुशी कुर्बान कर देना... 

थी चाहे बारिश की सीलन या धूप की तपत,
रहा वो हमेशा मेरा शरमाया, बन के एक दरख़्त... 

देता है आज भी हिम्मत वो हाथ कुछ यूँ –
गर हो परेशां तो थाम लेना मुझे,
हो तुम मेरे ही अंश....
और मै बागवां तुम्हारा.....
मै वक्त का मोहताज़ नहीं,
जो लौट के आ न सकूं...

शायद आ न सकता था आसमां वाला,
हर घर में.....
इसीलिए भेज दिया उसने खुद कों ज़मीं पर,
पिता के रूप में...
पिता के रूप में...
पिता के रूप में...


रविश 'रवि'
raviishravi.blogspot.com
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