Sunday 27 April 2014

रिश्तों की सीलन

दीवारों में दरारें
क्या आयीं,
कुछ रिश्तों में
सीलन पड़ गयी है.

वो धूप जो चमकाती थी
हमारे घर के आँगन को,
उस धूप में
गांठें आ गयी हैं.

कहते हैं कि
गर सीलन देर तक रहे तो,
फिर कभी उसकी
‘बू’ नहीं जाती है!



© रविश 'रवि'
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Wednesday 23 April 2014

वतन-बेवतन

सियासतदानों का हुनर तो देख..ग़ालिब
हवाओं को भी तकसीम कर दिया
उड़ते थे जो परिंदे आज़ाद आसमां में,
उन्हें भी आशियानो में कैद कर दिया.

कल तलक जिसे समझते थे खूँ अपना
उसे अपने जिस्म से अलग कर दिया
मेरा गाँव....मेरा शहर....मेरी गलियां,
अपने ही वतन में ‘बेदखल’ कर दिया.



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Thursday 17 April 2014

धूप के निशाँ

अक्सर घर की मुंडेर पर
धूप आकर बैठ जाती है
और
देर तलक बैठी ही रहती है

शायद...किसी का इंतज़ार करती है
कभी बिलकुल ख़ामोश रहती है
और कभी खुद से ही बातें करती है

ज्यों-ज्यों दिन चदता जाता है
त्यों-त्यों उसकी शिथिलता बढती जाती है
मगर आँखों में इंतज़ार की चमक
बरक़रार रहती है

और फिर...
शाम के जवान होते-होते
समेट लेती है खुद को
और चल पड़ती है वापस
उसी ख़ामोशी से
जिस ख़ामोशी से
बैठी थी मुंडेर पर आकर

और छोड़ जाती है
कुछ अनबुझे से,
कुछ अनसुलझे से
निशाँ,
घर की मुंडेर पर !




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