अक्सर घर की मुंडेर पर
धूप आकर बैठ जाती है
और
देर तलक बैठी ही रहती है
शायद...किसी का इंतज़ार करती है
कभी बिलकुल ख़ामोश रहती है
और कभी खुद से ही बातें करती है
ज्यों-ज्यों दिन चदता जाता है
त्यों-त्यों उसकी शिथिलता बढती जाती है
मगर आँखों में इंतज़ार की चमक
बरक़रार रहती है
और फिर...
शाम के जवान होते-होते
समेट लेती है खुद को
और चल पड़ती है वापस
उसी ख़ामोशी से
जिस ख़ामोशी से
बैठी थी मुंडेर पर आकर
और छोड़ जाती है
कुछ अनबुझे से,
कुछ अनसुलझे से
निशाँ,
घर की मुंडेर पर !
© रविश 'रवि'
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