कर रहा हूँ
इकट्ठा
आज फिर
नज्मों के कुछ टुकड़े,
कच्ची धुप की मुस्कराहटें,
सिली-सिली हवा की नमी,
सूरज की अंगड़ाईयाँ,
और
ढलती शाम की रुसवाईयाँ,
कहीं तो
मिल जाये
तेरे होने
का
पता
और
तेरा अक्स !
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